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Lessons From Emergency

डॉ0 हरबंश दीक्षित
प्रोफेसर तथा डीन, विधि संकाय
तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद।

जीवंत समाज हर घटना से कुछ न कुछ सीखता है। इतिहास की अरूचिकर घटनाए अक्सर हमें सुखद अनुभवों से ज्यादा सीख दे जाते है| आपातकाल की घोषणा और उसके बाद के घटनाक्रम भी इसी श्रेणी में आते है|

बीते 46 वर्षा में दश में बहुत कुछ बदल चुका हैं किन्तु आपातकाल आज भी भारतीय राजनैतिक इतिहास के काले अध्याय के रूप में दर्ज है। असंख्य लोग बेवजह जेलों म बंद कर दिए गए। उनके ऊपर अत्याचार की घटनाएं आज भी पुरानी नही पड़ी है|। प्रेस सेन्सरशिप लागू कर दी गयी। सरकार के मनमानेपन और उसकी निरंकुशता ने अलग तरह के आतंक का माहौल पैदा कर दिया। उसके बाद के आम चुनाव में जनता ने भरपूर सबक दिया। तत्कालीन सरकार की पराजय हयी और उसके सबक भारतीय राजनैतिक व्यवस्था और जनमानस में धीरे-धीरे जुड़ते गए। उनमे से कुछ हमने अपन संविधान में लिपिबद्धकर लिया जबकि कुछ को राजनैतिक अनुभवों के रूप में संजोया।

इसका सबसे पहला सबक यह था कि लोकशाही में किसी भी संस्था को इतना अधिकार नही होना चाहिए कि वह उसका दुरूपयोग कर सके और इसके साथ यह भी कि जो भी अपनी हैसियत का दुरूपयोग करेगा वह उस अधिकार को खोने के लिए अभिशप्त है ।

आपातकाल से सबक लेकर संस्थागत कमियो को दूर करने की दिशा में उसके बाद नयी सरकार ने तुरन्त काम करना शुरू कर दिया। सविधान संशोधन करके उन कमजोर हिस्सा को दुरूस्त किया गया। चवालिसवें संविधान संशोधन ने इसमें सबसे बड़ी भूमिका अदा की।

उस समय संविधान में यह व्यवस्था थी कि अनुच्छेद युद्ध, बाहरी आक्रमण या आन्तरिक गडबड के आधार पर अनुच्छेद 352 के आन्तरिक आपात की घोषणा की जा सकती थी। इसमें से ‘‘आन्तरिक गड़बड़ी’’ शब्दावली इतनी अस्पष्ट थी कि इसकी आड़ लेकर अपनी मर्जी के मुताबिक अर्थान्वयन करके आपातकाल की घोषणा की जा सकती थी। सन् 1975 की घोषणा में हुआ भी ऐसा ही था। युद्ध और बाहरी आक्रमण की परिस्थितियाँ तो इतनी गम्भीर होती है| कि उनके सम्बन्ध में तथ्यों काे तोड़ मरोड़कर मनमानी नही की जा सकती किन्तु आन्तरिक गड़बड़ी को अपनी सुविधा से परिभाषित किया जा सकता था। जनता पार्टी की सरकार ने इससे सबक लिया। चौवालिसवें संविधान संशोधन द्वारा ‘‘आन्तरिक गड़बड़ी’’ को हटाकर उसकी जगह ‘‘सशस्त्र विद्रोह’’ शब्द प्रतिस्थापित कर दिया। अब आन्तरिक गड़बड़ी के आधार पर नही अपितु सशस्त्र विद्र्रोह होने पर ही इसका प्रयोग हो सकता है। सशस्त्र विद्रोह एक गम्भीर स्थिति होती है और उसके अर्थान्वयन में मनमानेपन की सम्भावना बहुत कम होती है। इस प्रकार संविधान की इस कमी को दूर किया गया।

सत्ता को निकट से जानने वाले लोगों का एक आरोप यह भी था कि आपातकाल की घोषणा के समय पूरे मंत्रिमण्डल को विश्वास में नही लिया गया। बात तो यहाँ तक कही गयी कि मंत्रिमण्डल के अन्दर जिन लोगों ने आपातकाल की घोषणा का विरोध किया था उन्हे नजरबन्द कर दिया गया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अकेले निर्णय लेकर अपना पत्र राष्ट्रपति को दिया तथा महामहिम ने उस आधार पर आपातकाल की घोषणा कर दी। यह बहुत गम्भीर आरोप था। संसदीय पद्धति की सरकारा मे सभी निर्णय कैबिनेट द्वारा लिए जाते है। इसलिए सरकार के हर निर्णय के लिए कैबिनेट का सामूहिक उत्तरदायित्व होता है। इतने महत्वपूर्ण निर्णय में कैबिनेट की राय नही लेकर लोकतांत्रिक मान्यताओ के मर्मस्थल को चोट पहुँचाई गयी थी। हमने इससे सबक लिया। इस दुरूपोग की सम्भावना को जड़ से समाप्त करने के लिए चवालिसवें संविधान संशोधन में विशेष व्यवस्था की गयी। संविधान के अनुच्छेद 352(3) में इस बात का विशेष उल्लेख किया गया कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल की घोषणा तब तक नही करेंगे जब तक कि उसके लिए प्रधानमंत्री और उनके केबिनेट के सहयोगियों द्वारा लिखित रूप से इसकी संस्तुति न की जाय। इस संशोधन द्वारा प्रधानमंत्री के निरंकुश शासक की तरह काम करने सम्भावना को समाप्त करने का प्रयास किया गया। उसका सकारात्मक असर पड़ा और उसके बाद के वर्षो में लोकतांत्रिक मूल्यों के सम्मान की परम्परा पहले से बेहतर हुई

आपातकाल में राजनैतिक विरोधियों पर अत्याचार की बहुत खबरे आयीं। यह केवल जेल मे बन्द लोगों तक ही सीमित नही था। जो लोग बाहर थे उन्हें भी किसी न किसी बहाने आतंकित किया गया। जेल भेज देना तो आम घटना थी। और उस पर तुर्रा यह कि अदालत जाने का रास्ता बिल्कुल बन्द हो गया था। संविधान के विद्वान इसके लिए अन्य बातों के अलावा अनुच्छेद 359 के उस उपबन्ध को जिम्मेदार मानते थेजिसमें आपातकाल के दौरान सभी मूल अधिकारों को स्थगित किए जाने की व्यवस्था थी। इसका उपयोग करते हुए राष्ट्रपति ने सभी मूल अधिकारों को स्थगित कर दिया। इससे अदालतो के हाथ भी बँधे हुए थे। इसका जीता जागता उदाहरण शिवाकान्त शुक्ला बनाम ए॰डी॰एम॰ जबलपुर का मामला था। शिवाकान्त शुक्ला जेल में निरूद्ध थेऔर उन्होने बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका के माध्यम से उसे चुनौती दी थी। इसमें सर्वोच्च न्यायालय से भी न्याय नही मिल पाया क्योकि सभी मूल अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था। इस निर्णय की पूरी दुनिया में आलोचना हुई और उसे लोकशाही पर काले धब्बे के रूप में निरूपित किया गया। हमने इससे भी सबक लिया।

आपातकाल के बाद नयी सरकार ने इस कमी को दूर किया। संविधान संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 359 में ऐसी व्यवस्था की गयी कि आपातकाल के दौरान भी जब सभी अधिकारों को स्थगित करने की उद्घोषणा की गयी हो उस समय भी अनुच्छेद 20 तथा अनुच्छेद 21 में दिए गए मूल अधिकार स्थगित नही किए जाएँगे । अनुच्छेद 20 मे अभियुक्तो को अधिकार दिए गए है| ताकि उनके साथ अन्याय नही किया जा सके जबकि अनुच्छेद 21 में प्रत्येक व्यक्ति को जीवन तथा दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। इस तरह इस संविधान संशोधन के माध्यम से लोकशाही को मजबूती देने की दिशा में हम एक कदम और आगे बढ़े।

जीवन्त लोकतन्त्र मे आत्मपरिष्करण की अदमनीय इच्छाशक्ति होती है। सामाजिक जिजीविषा, अरूचिकर हालात में भी कुछ प्रेरणास्पद बातें ढूँढ ही लेती है|। हमने भी ऐसा ही किया। कुछ अनुभव सिद्ध सावधानियों को आपातकाल के अनुभव के रूप में संविधान मे दर्ज किया गया। शेष सामाजिक-राजनैतिक अचेतन में इस तरह घुलमिल गए कि वे हमारी सामूहिक सोच का हिस्सा बन चुके है।

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